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Shahbaz Khan

Abstract

4.9  

Shahbaz Khan

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सच और झूठ

सच और झूठ

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पढ़ा था जीतता है सच, झूठ की हार होती है,

सुना था है भटकता झूठ, सच की जयकार होती है,

मगर क्या देखता हूं, आज ये बेज़ार सा सच है,

अकड़ कर चल रहा है झूठ और लाचार सा सच है,


सच के हाथ में हथकड़ी, आज़ाद झूठ है,

सिसक रहा है सच और ज़िंदाबाद झूठ है,

झूठ के साथ हंगामा, झूठ के साथ शोर है,

डरा सहमा सा सच है, आवाज़ कमज़ोर है,


झूठ के साथ भीड़ है, झूठ के पास हैं हथियार,

घिरा झूठों से सच, निहत्था, अकेला, और वो हज़ार,

दलीलें दे रहा है सच, सबूत रखता है सामने,

मगर चालाक झूठ है, रखी है रुई कान में,


सच को अनसुना करके, झूठ का शोर बढ़ता है,

वो क़ातिल हाथ झूठ का, सच की ओर बढ़ता है,

दलीलें छोड़ कर फिर सच, रहम की मांगता है भीख,

सबूतों से गवाहों से, नहीं बची कोई उम्मीद,


दुआएं होंठ पे सच के, ढूंढ़ता है मदद वाले,

वहीं कुछ दूर, आंखें मूंद, खड़े हैं सच के रखवाले,

हुकुमत साथ झूठ के, सच का साथ कौन दे,

खुदा भी है तमाशाबीन, बढ़कर हाथ कौन दे,


तभी वो भीड़ झूठ की, सच पे वार करती है,

निकल जाए जान सच की, चोट इतनी बार करती है,

खून से लथपथ, रास्ते पर है पड़ी लाश अब सच की,

भीड़ गुम हो गई है, शोर भी, और आवाज़ अब सच की......


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