सागर के दर्शन जैसा
सागर के दर्शन जैसा


तुम कहते वो सुन लेता, तुम सुनते वो कह लेता।
बस जाता प्रभु दिल में तेरे, गर तू कोई वजह देता।
पर तूने कुछ कहा नहीं, तेरा मन भागे इतर कहीं।
मिलने को हर क्षण वो तत्पर, पर तुमने ही सुना नहीं।
तुम उधर हाथ फैलाते पल को, आपदा तेरे वर लेता।
तुम अगर आस जगाते क्षण वो, विपदा सारे हर लेता।
पर तूने कुछ कहा कहाँ, हर पल है विचलित यहाँ वहाँ।
काम धाम निज ग्राम पिपासु, चाहे जग में नाम यहाँ।
तुम खोते खुद को पा लेता, कि तेरे कंठ वो गा लेता।
तुम गर बन जाते मोर-पंख, वो बदली जैसे छा लेता।
तेरे मन में ना लहर उठी, ना प्रीत जगी ना आस उठी।
अधरों पे मिथ्या राम नाम, ना दिल में कोई प्यास उठी।
कभी मंदिर में चले गए, पूजा वन्दन और नृत्य किए।
शिव पे थोड़ी सी चर्चा की, कुछ वाद किए घर चले गए।
ज्ञानी से थोड़ी जिज्ञासा, कौतुहल वश कुछ बातें की।
हाँ दिन में की और रातें की, जग में तुमने बस बातें की।
मन में रखते रहने से, मात्र प्रश्न, कुछ जिज्ञासा,
क्या मिल जाएगा परम् तत्व, जब तक ना कोई भी अभिलाषा।
और ईश्वर को क्या खोया कहीं, जो ढूँढे उसको उधर कहीं ?
ना हृदय पुष्प था खिला नहीं, चर्चा से ईश्वर मिला कहीं ?
बिना भक्ति के बिना भाव के, ईश्वर का अर्चन कैसा?
ज्यों बैठ किनारे सागर तट पे, सागर के दर्शन जैसा।