रूठी कलम
रूठी कलम


आज कोरे कागज पर
इन्सानों की अच्छाई पर
लिखने की इच्छा हुई।
कागज सहम- सा गया और
कलम भी थम- सी गई।
किसी कचड़े के डब्बे में
हमें फेंक देना
लेकिन हैवानों को इंसानों
का नाम ना देना।
थक गई हूं हर रोज़ निर्भया की
कहानी लिख- लिख कर।
थक गई हूं निर्मम हत्याओं की
सुनामी लिख- लिख कर।
हर रोज़ निर्दोषों के खून से
भीग जाता हूं
सच जान कर भी कहां पूरा सच
बता पाता हूं ?
अख़बार के कोने- कोने में
हैवानियत भरी हुई है
अब इन्सानों में कहां
इंसानियत बची हुई है ?
हर दिन मर रही इंसानियत है
मानवों में भर गई हैवानियत है।
फिर कागज सिकुड़ सा गया
मुझसे कई सवाल कर गया।
मेरी लेखनी भी मुझसे रूठ- सी गई
साथ नहीं देना चाहती टूट- सी गई।