रसामृत – जीवन का मधु–मंदिर
रसामृत – जीवन का मधु–मंदिर
आज मैं लाया हूँ आनंद का प्याला — जीवन की मधुर सुधा,
प्रेम-सिंचित हथेलियों से अर्पित — दान यह दिव्य विधा।
हर हृदय के द्वार पे रख दूँ — यह अमर ज्योति का प्याला,
हर आत्मा को ऊष्मा दे — मेरा मधु-मंदिर निराला।
तेरी प्यास बुझाऊँगा मित्र — शुद्ध चेतना के राग से,
हर बूँद गाए जीवन गान — हर घूँट बहे अनुराग से।
इस नश्वर स्वप्न-सभा में मैंने — सुख-दुःख सब ही पीया,
फिर भी छलकाता रहता हूँ — नव गीत, नव प्रभात जिया।
तू है सुधा, मैं हूँ पात्र — दोनों का संग अभेद,
तेरी कृपा से भर उठे मन — अमृत का असीम भेद।
ना पात्र रहे, ना सुधा रहे — बस एक आत्मा का आलय,
तेरी दृष्टि में मैं पाऊँ फिर — मन-मंदिर का मधुालय।
विचार की बेलों से झरता — कवि-मन का यह रसामृत,
हर पद्य बने स्वर्ण-पात्र — हर शब्द बने परम-स्मृत।
जो कोई इसे पिए, पावे — कवि की अग्नि की लय,
हर ग्रंथ बने मधुशाला — हर पाठक अमर रस पाय।
भावों के गहरे सागर से — मैं यह अमृत घोलता हूँ,
आकांक्षा के प्यालों में — प्रेम का ज्वार तोलता हूँ।
स्वप्नों के हस्तों से परोसूँ — यह चिर अमरता की धारा,
मैं हूँ साक़ी और अतिथि — पीनेवाला, देनेवाला सारा।
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