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The Sarcastic Expressor

Classics

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The Sarcastic Expressor

Classics

रोज़ मुझसे हर घड़ी

रोज़ मुझसे हर घड़ी

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रात की चाँदनी से, सुबह के श्रृंगार तक, 

हवाओं की बहार से, बारिश की बौछार तक, 

कभी मौसम कभी लम्हा बनकर 

रोज़ मुझसे हर घड़ी झाँकती है ज़िंदगी।।


कभी खुशबू, कभी झोंका, कभी घटा, 

कभी आँसू, कभी खुशियाँ, कभी मज़ाक ,

कभी तजुर्बा तो कभी मिजाज़ बनकर 

रोज़ मुझसे हर घड़ी झाँकती है ज़िंदगी।।


कभी सरेआम, कभी पर्दे की ओट से, 

कभी खुलकर, कभी मन के खोट से,

कभी तख़्ते की सुराख़ से, कभी काँच के पार 

रोज़ मुझसे हर घड़ी झाँकती है ज़िंदगी।।


कभी उम्र के पड़ाव से, कभी वक़्त के घाव से, 

नाता हर एक से, जैसे रिश्तों के दबाव से, 

घर हो या सड़क के किनारे, हर एक को भाँपती है ज़िंदगी 

रोज़ मुझसे हर घड़ी झाँकती है ज़िंदगी।।


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