रक्षाबंधन पर्व
रक्षाबंधन पर्व
🌸 रक्षाबंधन : आत्मिक प्रेम का पर्व 🌸
(एक सामाजिक, अलंकृत काव्य)
रचयिता: श्री हरि
दिनांक: 9.8.2025
धरती ने ओढ़ी है धानी चुनरिया,
बादल सावन के झूले रहे हैं झूल
हवा में घुली है केसर की गंध,
हल्दी में पिसते चंदन के फूल।
नीम का वृक्ष बौराया है आज,
आँगन की तुलसी हुलसी मुस्काई।
मोगरे की बेल जो रोपी थी बहना ने,
उसकी पंखुड़ियाँ भी आज गुनगुनाई।
सुन री, भाग्यवती!
दालान बुहार ले…
शायद मल्हार सी चूड़ी की छनक लिए
बहन उतर रही हो पगडंडी से,
झोली में बाँध लायी हो समय की संजीवनी।
उसके हाथों में होगी पूजा की थाली,
जिसमें होंगे—रोली, अक्षत, दीप और विश्वास,
और एक राखी—
जो केवल रेशम का धागा नहीं,
बल्कि माँ की ममता का प्रतिरूप है,
जो भाई की कलाई पर बँधकर
रिश्तों की महक को अमर करने वाली है।
भाई की मंद मुस्कान में
उतर आती हैं बरसों की खाई हुई कसमें—
कि वह रहेगा ढाल बनकर—
जब जीवन की राह काँटों से भरे,
जब समाज कटघरे में प्रश्न करे।
बहन माँगती क्या है?
न स्वर्ण, न वस्त्र, न उपहार—
सिर्फ इतना…कि उसका भैया रहे—
सत्य की तरह अविचल,
धैर्य की तरह गम्भीर,
और वचन की तरह अडिग।
जो बरसाए सावन साअखंड प्रेम
और शाश्वत सुरक्षा।
राखी बाँधते समय
बहन की आँखें बनती हैं
नीर-झील की कंपन भरी छाया,
और भाई की हथेली बन जाती है
धरती की तरह—
स्थिर, सहनशील, आधारवत।
इस बंधन में
न कोई धातु है,
न दिखावे की चकाचौंध—
यह तो वह गंध है,
जो पीढ़ियों से बहनों की पीठ में
संघर्ष बनकर चमकती रही है।
रक्षाबंधन कोई तिथि नहीं—
यह तो है आत्मिक प्रेम का उत्सव,
जो बहनों की आँखों में उगता है,
और भाइयों के मौन में
वचन बनकर जीवित रहता है।
रक्षाबंधन पर्व पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाइयां
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