क़भी क़भी
क़भी क़भी
हां हो जाती हूँ कमजोर क़भी क़भी
अधूरा सा लगता है बाकी सभी
छूना चाहती हूँ आसमाँ लेकिन
कैद रह जाती हूँ बंद कमरे में क़भी
चाहती तो हूँ मुकम्मल हो जाऊँ
एक बस ज़िन्दगी के ही गीत गाऊँ लेकिन,
हक़ीक़त से पर्दा करना हमें आया नहीं क़भी
भुलाना हमारी मोहब्बत को मुझे आया नहीं अभी
बेबस अश्क़ों को आग़ोश में लेकर
तैयार हूँ मैं फ़लक को चूमने
ताक़त मिलती हैं बस तेरी एकही झलक से
तो आ जाती हूँ तेरे दरवाज़े पे कभी।

