पत्थर , आग और हम
पत्थर , आग और हम
मेरी माँ पत्थर मारने पर फट पड़ेगी,
बिखर जाएगी शिकायत और शोक मिश्रित क्रोध के कई टुकड़ों में,
और दिखने लगेंगी उस पर नैराश्य की कई धागानुमा गहरी दरारें जिनके सहारे भीतर जाएगी,
नई सोच की चुभती हुई नई रोशनी,
मेरी माँ आग लगाने पर पिघल जाएगी,
कई युगों की जल प्रलय में अभिसिंचित होकर,
जिसमें से उठेंगे,
अतीत की कई शिकायतों के अस्थिपंजर,
पर इस सारे विनाश में न दोष होगा पत्थर का,
न आरोप लगेगा आग पर,
क्योंकि मेरा मानना है कि मेरी माँ मोम की बनी है।
मैं अगर पत्थर बनकर उतरूँगा,
तो सोख कर बना लिया जाऊँगा तलछट का अस्तित्वहीन एकत्व,
जिसमें नहीं रहेगी फ़र्क करने या फ़र्क समझने की हिम्मत या क्षमता,
तुम अगर आग या मशाल बनकर आओगे,
तो कर दिए जाओगे तुरंत ही निष्प्राण और कर्तव्यच्युत,
पर हम दोनों के इस निश्चित पतन में न तुम्हारा दोष होगा,
न मेरी इच्छा,
क्योंकि आम मत है कि शिक्षा व्यवस्था में कीचड़ भरा है।
तुम्हारे और मेरे खुलकर बिखर जाने से,
एक छोटे धमाके के साथ जल उठेगी रोशनी,
जो जलती रहेगी हम दोनों के अस्तित्व तक,
और बैठ जाएगी हमें देखने वालों की आँखों में रोशनी की ज़रूरत बनकर,
और इस स्वाभाविक रासायनिक प्रक्रिया में हाथ होगा एक अप्रतिम संयोग का,
कि मैं स्याही से भरी कलम थी,
और तुम एक नई मशाल,
और हम दोनों मान लेते हैं कि हम में प्रेम हो गया।
मैं, तुम, माँ और व्यवस्थाएँ अपनी अपनी धातुओं की पहचान भूलकर,
लड़ते रहेंगे आग, पत्थर, जीवन, संस्कार और समाज से,
जिसमें माँ नहीं बन पाएगी तपकर खरा होने वाला सोना,
हम नहीं धो पाएँगे अपने ऊपर का कीचड़,
और मैं और तुम नहीं रोक पाएँगे अपने बीच होते धमाके।