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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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परवाह

परवाह

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समय के साथ साथ देखिये

सबकुछ बदल रहा है,

थोड़ी बहुत जो परवाह थी

वो भी अब गुमराह है।


रिश्ते नाते भी अब स्वार्थी 

सुविधा से बस परवाह करते,

परवाह की परवाह भी

अब नहीं हमको तनिक है।


क्यों करें परवाह हम

होगा क्या हासिल हमें,

यदि करुँ परवाह तो

तमगा मिलेगा क्या हमें ?


स्वार्थ का बाजार है

स्वार्थ के व्यापारी हम हैं,

हमको न बेवकूफ समझो

स्वार्थ के पुजारी हम हैं।


परवाह तुम करते हो सबकी 

क्या तुम्हें हासिल हुआ है,

परवाह की किसने तुम्हारी

सिर्फ़ ठोकर ही मिला।


जिंदगी ये है तुम्हारी

मर्जी है जैसे चाहो वैसे जियो,

हमको नहीं परवाह तुम्हारी

भुगतो, जियो या फिर मरो।


तुम मेरे हमदर्द ठहरे

मैं भी तो हमदर्द यारों,

छोड़ परवाह औरों की

सिर्फ़ अपनी परवाह करो।


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