परछाईयाँ..!
परछाईयाँ..!
आज फिर एक बार
अंधेरे में तलाशती रही
तुम्हारी परछाईयाँ!
जब तक तुम रहते हो
हर शब्द,
अभिव्यक्ति से पूर्ण होता है
किन्तु, बिना तुम्हारे
वो भाव, वो सामंजस्य
नहीं बैठा पाती हूँ...
शब्दों और इच्छाओं में...
फिर भी, जो लिखूं
बनकर रह जाता है
शब्दों की भीड़,
आहत मन फिर तलाशता है...
तुम्हारी परछाईयाँ...
इच्छाओं के इस लौह दुर्ग को
खोज है
अपनी सीमाओं की
तुमसे बंधना
तुम में गूँथ जाना ही तो
मेरी परिपूर्णता का परिचायक है,
तुमसे बंधे हर क्षण में
निहित है -
मेरे शब्दों की सार्थकता
जिसका कोई विकल्प नहीं...
कितना प्यारा सा स्वप्न है ये,
डरती हूँ, टूट न जाएँ,
ये स्वप्न, ये मनिकाएं...
फिर से तलाश रही हूँ,
तुम्हारी परछाईयाँ..!