पराजिता सी मैं
पराजिता सी मैं


जीवन चक्र में गतिमान
मैं और शरीर को साथ लिए
मैं चेतना के संगम में डूबती हुई
विचारधारा के प्रवाह में जीवन लिए
विरुद्ध दिशा में बहता पानी सा अहम लिए
उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंच भी नही समझी
कि क्यो और कैसे होता हैं यह विलय और
कौन हूं आखिर मैं..
एक प्रश्न टीस देता है अंत में कि आखिर क्यों..?
जीवन मिला, क्यो जाना, क्यों फिर से आना
मुझे लगता है जैसे मैंने प्रश्न की सूची ही निर्मित कर ली हैं
तुम्हें भी यहीं आना है हम सब को बार बार क्यों..?
पर तुम मिलकर फिर शरीर से भूल जाते हो कि
क्या है प्रकर्ति का नियम क्यो हैं ये सब
>कौन हूं आखिर मैं..
नदी के पानी की गहराइयों में डूबा अन्तःमन मेरा
विलीन हो जाता हैं जैसे समुद्र का पानी
पराजिता सी मैं आती हूँ जीवन चक्र में पुनः पुनः
कदाचित यही क्रम एक जन्म दर जन्म चलता है
हमें महासागर से जीवन मे अपने को जानना है
अतल तल तक जाकर स्वयम को जानना कि
कौन हूं आखिर मैं..
तब कहीं जाकर स्वय के साथ हो सकता है न्याय
हमें जीवन शरीर के साथ मिलकर पहचानना हैं
चिर निद्रा में विलीन हो उससे पहले ही मैं कौन हूँ
क्यों हूँ, कब तक हूँ, कहाँ हूँ, किसके लिए हूँ
ये सब प्रश्न शांत करने हैं
प्रश्न बहुत है मेरे …
कब तक पता नहीं।