पिता
पिता
पिता एक किरदार ...एक दायित्व...एक कवच...
आँधियों से झंझावातो से जूझ कर रक्षा करता एक बरगद ...
वक्त की मार से बचाता एक कवच...
जिन्दगी की राह पर उंगली थामे कभी सदृश्य और प्रायः अदृश्य हाथ ...एक चट्टान जिससे भावना के श्रोत निर्झर बहता हो ...
विडंबना यह है की जनक तो सभी के हैं पर पिता कितनों पर हैं ...कितनो ने महसूस किया है पिता का अहसास अपने आस पास ?...पिता एक अहसास है उस अहसास को अनुभूति से प्रणाम !"-----
पिता एक बरगद सरस,देता सबको छाँव।
हम सबका पोषण करे,थकते कभी न पाँव।
हाथों में उँगली पकड़,वो चलते थे साथ।
कभी अगर फिसला कहीं,तुरत थामते हाथ।
दुनिया की इस भीड़ में, मेरे बहुत करीब।
पिता और भगवान वो, मेरी हैं तकदीर।
रख कर मुझको छाँव में, खुद सहते वो धूप।
मैं उनकी पहचान हूँ , वो मेरे हैं रूप।।
पिता एक दायित्व हैं, पिता हमारी शान।
जो सबको है पालता, देता है पहचान।
खुशियों से हरपल भरा, रहता मेरा गेह।
उनके चरणों में सदा, झुकी रहे ये देह।
सफल वही इंसान है,जिस सर उनका हाथ।
उनके चरणों में सदा,झुका रहे ये माथ।
