पिंजरा खोलकर निकल जाएंगे
पिंजरा खोलकर निकल जाएंगे
जीवन मिलते ही मृत्यु की ओर हम बढ़ते जाते
किन्तु एक यही सच्चाई हम याद नहीं रख पाते
खेलकूद में बचपन बिताकर युवा हम हो जाते
वासनाओं के गहरे दलदल में रोज धँसते जाते
विकारों में फंसकर हम अपनी ही चिता बनाते
समय वापसी का आता तब रो रोकर पछताते
जीवन की अनमोल घड़ियां यूँ ही गुजर जाती
होश तभी आता हमें वृद्ध अवस्था जब आती
आत्म ग्लानि से भर जाते जीवन व्यर्थ गंवाकर
हासिल कुछ ना हो पाता अंत समय पछताकर
एक दूजे की मृत्यु का सब करते यहाँ इन्तजार
चिता जलाने की सामग्री है सबके लिए तैयार
फिर क्यों लापरवाही में यूँ अपना समय गंवाते
आत्मशुद्धि के पुरुषार्थ में क्यों ना समय लगाते
आत्म स्वरूप का अभ्यास जितना पक्का करेंगे
मृत्यु आने के समय हम बिल्कुल भी नहीं डरेंगे
अपने हाथ फैलाकर हम मृत्यु को गले लगाएंगे
तन का पिंजरा खोलकर खुद ही निकल जाएंगे!