पहली मुलाक़ात
पहली मुलाक़ात
तुम जानते हो पहली दफ़ा
जब मिले थे तुम मुझसे
कितनी मुस्कुरा रही थी हमारी नज़रें,
झुकी-झुकी सी,
मिलती फिर सहम जाती थीं
तुम खेल रहे थे आँखों के पेंच
और मैं बचना चाह रही थी
तुम्हारी नज़रों की बारीक
चुभती सी किरणों से,
मैं रोशनी में नहाई हुई सी
महसूस कर रही थी
जब जब तुम मुझे
टकटकी लगाए देख रहे थे,
साँसे तेज़ थीं हम दोनों की और
लफ्ज़ कुछ नए बुने जा रहे थे।
ये हुआ कि तुमसे
जो कहते ना बन रहा था।
मुझसे वो सुनने का सब्र
ना किया जा रहा था।
सिलसिला चलता रहा यूँ ही
कुछ और मुलाकातों में।
तुम अब आँखों से कम और ज़ुबाँ से ज़्यादा
बयाँ करने लगे मेरी खूबसूरती को,
कैसी कैसी नज़्में लिख डाली थीं तुमने
यकीनन मुझे गुरुर हो चला था।
शायद मैं काँच की गुड़िया हूँ
एकदम पारदर्शी और चमकती सी
फिर एक मुलाक़ात पे
तुमने चुंबन की दरकार की।
मैं सहम सी गयी औऱ,
मैंने तुम्हें टाल दिया हल्के से गुस्से में,
तुम्हारी ज़िद बढ़ती गयी और
मैं पिघलती रही मन ही मन।
मैं सोचती हूँ,
तुम अब तारीफ़ें कहाँ करोगे पहले सी,
गर मिल गयी तुम्हें ये काँच की गुड़िया
तुम खो जाओगे इस शीशमहल में,
फिर एक दिन चकनाचूर कर के इसको
तुम लौट जाओगे न दूर अपनी दुनिया में।।