फिर क्यों है छायी ये ख़ामोशी
फिर क्यों है छायी ये ख़ामोशी
है ये ख़ामोशी कैसी
क्यों है चुप आज तू
खोल दे तू वो पिंजरा
और तोड़ दे उन ज़ंजीरो को !
बातें जो दबा के रखी है
दिल में तूने इतने दिनों से
बनाके चिंगारी उसे
जला दे तू हर पापी को !
सपने जो तूने है देखे
दिखा तू इस दुनिया को भी
खोल दे तू भी अपने पर
और उड़ जा तू आसमान मे !
अगर रोकना चाहे तुझे यह समाज
न करना परवा तू इनका
है अग्नि बसी तेरी त्रि-नयन में
कर देना भसम तू भी !
ये दुनिया तेरी भी उतनी है
जितना है ये सबकी
सपने है आज़ाद आज भी
याद ये बस तू रखना !
रोके से न रुके तू
तोके से न टूटे
उड़ जा तू दूर गगन में
जहा सब तुझे पूजे !
तो फिर क्यों है छायी ये ख़ामोशी...
खोल के तू पिंजरा
तोड़ के इन ज़ंजीरो को
उड़ जा दूर गगन में
और छु ले तू आसमान को... !