ऐ ज़िन्दगी
ऐ ज़िन्दगी
ज़िन्दगी तू लेगी कितने और इम्तेहान,
थोड़ा तो रुक, थोड़ा-सा ठहर जा,
दौड़ रहा हूँ न जाने मैं कब से,
और साँस लेने का,
फुरसत ढूँढ रहा हूँ तब से।
पैर अब थक गए है मेरे,
बिछार भी मैं चुका हूँ अब सबसे,
रह गया है बहुत कुछ पीछे,
छूट गए हैं अपने भी न जाने कैसे।
मन तो बहुत करता है के,
दौड़ जाऊँ उन गलियों में,
जहाँ मेरा बचपन,
अभी भी पुकारता है मुझे,
कहता है, यार अब लौट आ,
बहुत दौड़ लिया तूने इस रेस में।
आ बैठेंगे उस पेड़ की छांव में,
और झूलेंगे उन यादों के झूले में,
आ चलेंगे सुबह उठके,
बुलाने उन दोस्तों को,
और खेलेंगे जी भरके,
जब तक शाम ना हो।
खोल दे वह पिंजरा,
तोड़ दे तू ज़ंजीरो को,
आज़ाद कर दे अब अपने,
अंदर के उस बच्चे को,
क्या मिला तुझे दौड़ के इतना दूर,
देख आज खो बैठा है,
तू अपने आप को।
ऐ ज़िन्दगी तू थोड़ा अब रुक जा,
ज़रा साँस लेने दे इस बच्चे को।