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Manoj Prabhakar

Abstract

4.3  

Manoj Prabhakar

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पहेली

पहेली

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तितली हमेशा 

श्रृंगार से सराबोर रहती है

कोई देखे न देखे 

झिंगुर हमेशा गाता रहता है

कोई सुने न सुने 

बेंगमछली छलांग दो छलांग में

मेंढ़क बन जाती है 

पुष्प अपनी खुशबु

बिखेरते बिखेरते 

खुद बिखर जाती है

कौवा और कोयल का 

उधार खाता चलता रहता है

गिरगिट मनचाहा रंग ओढ़ते रहता है

उसकी मर्जी 

परागकणों के फेर में 

नन्हीं मधुमक्खी 

पागल बनी फिरती है

छोटी चींटीयों का झुंड लगी है 

गुड़ का पहाड़ बनाने में 

इंद्रधनुष गलती क्युं नहीं करता

रंगों के क्रम में

पुरानी गली के अंत में

चार पिल्ले तेजी से बड़े हो रहे हैं

काठ के दरवाजे के भीतर

कुछ कुम्ह

रुआ 

मिट्टी के कई घर बनाये हैं

थनों में बूंद बूंद दूध 

लगातार टपक रहा है

उपर पानी से लदे बादल भी

नटखट हवाओं से परेशान है

नीचे तपती जमीन को भी 

वीर्य बूंदों का इंतजार है

चातक न जाने 

कब से बिना थके

आसमान थामें है

अमावस को इतने सारे तारे 

कहां से आ जाते हैं

चौदहवीं का चांद

पूर्णिमा से ज्यादा निखरा है कैसे

डूबते उतलाते 

हाथ पर गाल टिकाये मानव

उचटी नींद से तुरंत जागा

सोचता है

कितना सौंदर्य है बिना तारीफ के 

कितना संगीत है बिना कद्रदान के

कितनी पूर्णता है 

कितना अधूरापन है

कितना सवाल है बिना ज़बाब के

और कितना ज़बाब है 

बिना सवाल के ।


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