फागुन की चंद्रकलाएँ
फागुन की चंद्रकलाएँ
चाहतों के देवता ने, इस कदर तरसाए हम,
चांद की 14 कलाओं से ही घर लौटाए हम,
माघ उतरा था कि शीतल फागुनी बहने लगी,
प्रेम की बाती बड़ी कठिनाई से सुलगाए हम,
आई जब तेरस तो शंकर को मनाने भी गए,
और नंदी के श्रवण में मन्नतें कह आए हम,
शुक्ल पख बाजार में आईं बहोत रंग ढेरियां,
ढेरों सतरंगी स्वप्न दो आंख में भर लाए हम,
अपने गालों के लिए उनके लबों सा रंग लिया,
और उनके वास्ते अपना ही रंग चुन पाए हम,
चांद की चूड़ी जो अंबर में जरा बढ़ने लगी,
उपग्रह एक और अपने रास्ते में पाए हम,
रास्ता छूटा वहीं और रंग फीके हो गए ,
होलिका के संग सारे चाव दाह कर आए हम
जाने बिगड़ा था शनीचर या कोई बिगड़ी दिशा,
या किसी चौराहे पर ये पांव थे धर आए हम
हम जो एकम को चले थे आस पूनम की लिए,
प्यार में एक मास भी पूरा नहीं कर पाए हम।