नारी
नारी
कहते सुना मैंने, लोगों के मुख से कि
अब पहले से ज्यादा सशक्त हो गयी नारी
अब तो आजाद है वह, नहीं रही बेचारी
पर क्या समझ पाया जग उसकी लाचारी
क्यों घर से निकल,वह खुद लगी कमाने
उस पर घर बाहर दोनों की है जिम्मेदारी
अब उसे पहले से ज्यादा है खटना पड़ता
आकर घर फिर चूल्हे में है तपना पड़ता
बूढ़े सास ससुर की फ़िक्र उसे सताती
थककर चूर शाम को जब घर आती है
घर का कौन सा सामान खत्म हो गया
राह चलते भी इसी का हिसाब लगाती
रातों की नींद ,दिन का चैन सभी खो देती
जी हल्का करने को फिर चुपके से रो देती
सुबह से शाम तक भागम भाग है रहती
दुखड़ा अपना न कभी किसी से कहती
टिफिन रखना भूल न जाना तुम अपना
जाते जाते हर रोज यही हिदायत देती
पर खुद कमर दर्द की भी सुध नहीं रहती
रिश्ते नाते दारी भी बखूबी है निभाती
पर जीवन की जंग हार जाती तब
जीवन साथी समझदार न हो जब
रोते बच्चे मां के सीने से लिपट जाते
जब थकी मादीं सांझ को घर आती.