नारी की वेदना
नारी की वेदना
अपनी व्यथा किसे सुनाऊ, यातनाओं/प्रेम का भंडार हूँ मैं
पुरुष समाज में अस्तित्व ढूंढती, हर जन का संताप हूँ मैं।।
यंत्रणा बन घर-समाज की, विरह-मिलन की घटका हूँ मैं
मान-सम्मान की धुरी बनती,यंत्रण, संयम की अंतिम सीमा हूँ मैं।।
सुख-दुख का आधार कहलाती, सृष्टि सृजन की नीव हूँ मैं
कालचक्र भी पूरा ना हो, बदलते वक़्त की पहचान हूँ मैं।।
निर्दयी, निर्लज्ज भी कहलाती, तानों की शिकार हूँ मैं
सहन शक्ति की सीमा नहीं, घर में अनकही सरकार हूँ मैं।।
ससुराल में होती गृह लक्ष्मी, धन, वैभव की सरताज हूँ मैं
पीहर की मैं ही परी लाड़ली, पर पीहर में पराई नार हूँ मैं।।