|| न जाने ||
|| न जाने ||
कितनो को चलना सिखाया इस कंकाल ने,
कितने मौसम झेले इस खाल ने ,
कितने कंघे झेले इन मूंछों के बाल ने,
कितनो के आँसू पोछे कंधे के रुमाल ने,
आँखों को भिगोया कितनो की चाल ने,
कितना तरसाया एक मुट्ठी दाल ने,
फिर भी- कई बार सर झुकाया आकाल ने ,
क्योंकि मुझे बनाया है उस गोपाल ने!