मुसाफ़िर परिंदा
मुसाफ़िर परिंदा
मेरे दिल के कोने में वो " परिंदा" घौंसला बना बैठा,
मैं मजबूर इश्क़ में अपना "आशियां" गवाँ बैठा ।
मुझे मालूम भी था वो हमसफ़र नही इक मुसाफिर है ,
जाने क्यों फिर भी उससे अपना दिल लगा बैठा ।
प्यार के फूलों से उसके वास्ते सुंदर बिछौना सज़ाया,
दुःखों के तापों से सहेजा, गमों की बारिशों से बचाया ।
इक दिन आसमाँ में उसे ,अपना काफ़िला नज़र आया,
मेरे दिल के घरौंदे में वो , कुछ इस कदर छटपटाया ।
घुटन के एहसास से वो परिंदा, कुछ यूं उमड़ बैठा ,
मेरी प्यारी सी पनाह को वो कैद समझ बैठा ।
उड़ गया वो परिंदा फिर मुड़ कर न आया ,
मेरा प्यारा सा आशियाँ उसे रास ना आया ।
अजीब सी असमंजस में है आज मेरा व्यथित मन,
इक अजनबी के लिए सिरहन में है मेरा तन बदन ।
ना साथ आज किसी का, ना कोई है सहारा ,
ना आज मैं उस का ,ना था वो " बेपरवाह" हमारा ।
क्यों ख्वाब उसके मैं , अपने दिल में सज़ा बैठा ,
क्यों वो "मुसाफिर परिंदा" मेरी जान बन बैठा ।।
