मुकम्मल
मुकम्मल


फ़ारिग हूँ मैं कोरे कागज़ की तरह,
अल्फ़ाज़ों में खुद को समेटना चाहता हूँ,
उल्फ़त के टूटे अक्षर जाल से,
इश्क के मंजर कुरेदना चाहता हूँ।
बस खामोशियां बिखरी है मेरे रंग में,
जो चाहे उस रंग में रंगना चाहता हूँ,
रंगो की हैसियत को, हसरतों के पैबंद लगाकर,
खुशनुमा मौसम में हँसते हुए जीना चाहता हूँ।
गर कागज़ ना होता तो इल्जाम कौन लगाता?
अज़ीज़ ही होते हैं फ़रेबी, यह कौन समझाता?
छलकते रहते हैं खामोशियों के पैमाने अंदर ही अंदर,
गर ना होता साकी तो जाम कौन पिलाता?
कागज़ों के बाज़ार में हवाओं का ज़ोर नहीं चलता,
और उनके शहर में चूहों-सा चोर नहीं चलता,
>वरना बदल जाते हैं आकार कागज़ों के,
बग़ैर कागज़ों के इतिहास रचने कोई और नहीं होता।
हर कागज़ साधारण नहीं होता,
या फिर मीठे लफ्जों का सिकंदर नहीं होता,
ये ऐसा गहना है हमारे जीवन का,
जिसको पढ़े बिना अज्ञान दूर नहीं होता।
अब इतनी ही आरज़ू है मेरी,
मुझ पर भी दो लफ़्ज़ आ जाए,
मैं भी संवर जाऊं,
मेरा भी जीना मुकम्मल हो जाए।
अंदाज-ए-अकबर अब
तुम को भी समझना होगा,
चार कागज़ों को बचाने के लिए,
आठ पेड़ों को लगाना होगा।
है बाकी की इंसानियत अभी तुझ में तो,
कागज़ों पर चित्र बनाने से बेहतर है ,
खाकर कसम इस धरती को
सुंदर बनाना होगा।