मरघट कोमल भावों का
मरघट कोमल भावों का
मुझे जरुरी
लगता था लिखना पहले भी
हमारी उन मीठे से फीकी होती
तल्ख में बदलती बातचीत
के बीच में
मगर मैं ज्यादातर
शांत ही रही।
महसूस
करती रही
छली मन की झूठी आस को
मेरे ही स्वाभिमान से
टकराते हुए
बतलाते हुए मुझे कि पुरुष
कहीं भी कोई भी
भूमिका में हो जीवन मे
उसके अहम के लिये
स्त्री की सीधी सपाट बात
सूखे जलावन पर
चिंगारी सी
होती है।
इसे तुम्हारा
सौभाग्य कहूं
या अपना दुर्भाग्य
यादों से गले मिलता हुआ
बीतता समय
मेरे मनोभावों के, विचारों के
कुछ झिझकते लेकिन स्पष्ट शब्दों पर
रोज कुहासा लाकर
ओढा जाता है,
और फुसफुसाकर
अतीत याद दिलाता है
तुम्हारे घृणा से भरे
कुंठित उदगार
मेरे बेलाग सवालों और
सच पर ।
फिर भी
मुझे मेरे अंदर
धीमे धीमे से बुझती
कोमल भावों की
सुलगती राख से अब भी
चन्दन सी महक आती है
वाकई
'मूर्ख ही तो हो तुम'
यह सच ही लिखा था तुमने
इस बात को तब मिटाने
से पहले।
मरघट कोमल भावों का
स्मृतियों में नवीन होते हुए भी
जीवंत रहता है।
