मरासिम (रिश्ता)
मरासिम (रिश्ता)
पत्थर और नक़्क़ाश का मरासिम फ़साना है
क़तरा क़तरा तराश कर एक बुत बनाना है
बुत तो इबादतगाह में सजके ख़ुदा बन गया
नक़्क़ाश जैसे अछूत था वैसे अछूत रह गया
मुद्दतों से जमी है जो उसकी आँखों में बर्फ़
वक़्त की गर्मी से लम्हा लम्हा सा बह गया
तेरे क़त्ल की फेहरिस्त में वो नाम हुआ कम
क़ातिल का नाम आते आते ज़ुबां पे रह गया
धूप में पकाई थी मैंने अपने जिस्म की रोटी
भूख तुझे ज़िंदगी का सितम समझ सह गया
ख़्वाब पर चलूँ तो पैर में हक़ीक़त चुभती है
ज़िंदगी की कहानी यूँ ही बेज़ुबानी कह गया
तुम रोशनी बनो जिसकी नहीं कोई परछाई
मोम तो मोम है पिघल कर साया रह गया।