STORYMIRROR

भावना बर्थवाल

Abstract

3  

भावना बर्थवाल

Abstract

मन की बात

मन की बात

1 min
213

मन तो बच्चा है न जाने बच्चा ही रहना चाहता है

मन के अरमानों को जीना चाहता है।

पर कौन सुनेगा मन की बात ।

कभी जो मन की बात मुंह से  बोल दी तो मज़ाक बन जाता है ।

दिल में भावनाओं की एक किताब रखी है।

पर किताब के पन्नो को पलटेगा कौन।

कुछ सपने पलकें बिछाए इन्तजार में 

पर सपनों को कौन अपनायेेेेगा

जिंदगी चली जा रही है अपनी ही रफ्तार लिए।

फिर सपनों की कतार देेेखेेेेगा कौन।

छोटी-छोटी खुशियों को तरसता इंसान

फिर भला  मन की बात समझेेेेगाा कौन।

दूसरों के सामने अपनों की बात झुठलाता इंसान

फिर भला मन की बात समझेगा कौन।

जिंदगी का फर्ज निभाते चले हम ।

मन की बातों का एक उपन्यास लिख गये हम।

सिर्फ मन ही मन में।

कई बार लफ़्ज़ों से तोला भी हमने मन की बातों को।

पर सुनने वाले ने खाली ही लौटा दिया।

सच है मन की बातें हमने खुद नहीं सुुनी

तो भला कोई और क्यों सुनता।

मन की बात मन में ही रह गई।

दिल मायूस आंखें नम 

सपने अधूरे।


 

  



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract