मिट्टी की चिट्ठी
मिट्टी की चिट्ठी
बात ही अजब निराली है।
कही चिकनी, कही रेतीली,
कही सख्त, कही काली है।
अजब बात है जो ना कहीं जा सके,
बस छुओ तो हाथों में भर जाती है,
कुछ यादों से हाथों को सजातीं है।
याद है वो गर्मियों में आम लड-लड कर खाना,
और फिर उसकी गुठलियां उसी मिट्टी में दबाना।
वो मिट्टी थी जो पानी डालो तो बह गयी,
जैसे हजारों आफत अपने साथ ले गयी।
आपस में भाई - बहनों का लड़ना और रूठना-मनाना,
छोटी-छोटी बातों पर पापा के पास भागकर जाना,
कौन ज्यादा अच्छा है इस पर इतराना और
आखिर में मां से हमेशा डांट खाना।
सच ही कहा है किसीने कि मिट्टी का रंग किसने जाना।
कही मिट्टी के घर बनाते थे, तो कभी पहाड़ बनाते थे ।
कभी उस मिट्टी में पौधे लगाते थे, मिट्टी में खेलकर
गिरते थे, उठते थे, उसमें खुशी पाते थे।
लेकिन अब वही मिट्टी है, जिसे पैर में लग जाने के डर से सोचकर ही पैर उठाते हैं।
मिट्टी का ही शरीर है, उसी में मिल जाना है।
आए हैं दुनिया में तो सभी को एक दिन जाना है।
उसीको फिर से पानी में बहाना है।
सही कहा है किसीने मिट्टी का रंग किसने जाना है।
