मेरी कल्पना
मेरी कल्पना
कनखियों से देख मुझे
वह मन्द-मन्द मुस्काती है।
अपने मृगनयनों की वाणी से
मुझे वह यूँ भरमाती है।
लहराती बलखाती जब
वह समीप मेरे आती है।
मेरे हर रोम में एक
मधुर एहसास जगाती है।
उसकी वाणी मानो
वीणा का राग है।
जैसे नीरस धरती पर
बारिश का आगाज़ है।
उसके स्वर कर्णो में
मेरे मधुरस घुलते हैं।
कहीं ह्रदय में
छिपी वेदना को हरते हैं।
उसका स्वर सुनने को
व्याकुल मेरा मन रहता है।
एक छण रुक कुछ कह दे वह
बस यह कामना करता है।
उसके गालों को लट काली
जब होले से सहलाती है।
और उनको अपनी उंगलियों से
सहज ही वो हटाती है।
यह देख हाय ! मेरा अन्तर्मन
कुछ गुनगुनाता है।
और कल्पना के कोनों में
कहीं लीन हो जाता है।
उसके सौन्दर्य का बखान
नहीं आसान मेरे भाई।
सौन्दर्य इतना निर्मल कि
अप्सरा भी ना टिक पाई।
शब्दों का ताना बाना भी
उसकी परिभाषा ना दे पाए।
वह केवल एक लाखों में
एक जो मेरे हृदय में समाई।।

