मेरी हिंदी, मेरा सपना
मेरी हिंदी, मेरा सपना
चढ़ते-चढ़ते अचानक
आखिरी सीढ़ी पर वो अटकी है,
दिल में चुभती बात यह
नज़रों में मेरी खटकी है।
चेहरे पर भाव सुन्दरता के
अश्कों से कुछ दबते हैं,
आगे बढ़ने को आतुर
दोनों पैर आपस में लड़ते हैं।
दिन-ब-दिन लाचार होकर
धुंधला रही वो आकृति,
सिसक-सिसक कर आहें भरती
उसकी माँ संस्कृति।
पूछ बैठी मैं आखिर
आँखों में कैसे सपने हैं,
कहाँ गए वो लोग
जो खुद तेरे अपने हैं।
कुछ व्यंग भरी मुस्कान से
तीखे सुरों के तान से,
वह बोली मैं हूँ तेरी भाषा
क्यों दूर कर रहे मुझे मेरी पहचान से।
चल रहे हो जो तुम सीना तान
रहता तुमको मेरा कितना ध्यान,
प्रेम का दूजा नाम हूँ
मैं ही हूँ तेरी पहचान।
दिखाया उसने मुझे कड़वी सच्चाई का आईना है
उसको ही मैंने अब अपना सब कुछ माना है,
हिंदी भाषा से मेरा रिश्ता कोई अपना है
इसका उत्थान, इसका मान, मेरा यही सपना है