मैंने देखा है
मैंने देखा है
मैंने देखा है-
उन कश्तियों को
जो सागर में तैरती हैं।
उफनती मौज़ों,
मचलती लहरों से टकराकर-
डगमगाती सम्हलती हुई,
आगे बढ़ती जाती हैं,
उठते ज्वार और तूफान में -
मांझी छोड़ जाता है,
साहिल से छूट अकेली-
रह जातीं मंझधार में;
खो जाता उनका अस्तित्व,
वो कश्ती नहीं रहतीं,
टूटकर बिखरकर -
भंवर में खो जाती हैं।
मैंने देखा है-
उन कश्तियों को
जो सागर में नहीं तैरती हैं।
साहिल के छुटने,
मांझी के छोड़ जाने से-
डरती घबराती किनारों पर
अकेली रह जाती है,
उफनते मौज़ों से
लड़ने की हिम्मत नहीं,
थपेड़ो को सह नहीं सकती,
पर-
खो जाता उनका अस्तित्व,
वो कश्ती नहीं रहतीं,
बिखरकर टूटकर-
अग्नि में खो जाती हैं।
और मैंने देखा है-
उन कश्तियों को भी
जो नीलगगन में विचरती हैं।
साहिल छुटने,
मांझी के छोड़ने का
उनको भय नहीं,
वो तन्हा चलकर भी
कारवां बना लेती हैं,
ये कश्तियां भी
टूटकर बिखरती हैं,
पर-
उनका अस्तित्व नहीं खोता;
अपने वज़ूद के साथ
वो हँसकर बिखर जाती हैं-
ज़र्रे ज़र्रे में, बूंदो में,
ज्वाला में, झोंकों में,
ख़ुशबू में, चांदनी में,
और, ना जाने कहाँ कहाँ?
ये कश्तियां-
जिन्हें मैंने देखा है।
#पॉजिटिव_इंडिया