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कवि आलोक शर्मा 'अज्ञानी'

Romance

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कवि आलोक शर्मा 'अज्ञानी'

Romance

मैंने बंधन तोड़ दिया

मैंने बंधन तोड़ दिया

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मात-पिता एवम् भ्राता से रिश्ता-नाता जोड़ लिया

प्रिय प्रलाप करो कितना भी मैंने बंधन तोड़ दिया।


मैं निर्जीव तुम्हारे बिन प्रिय तुम हो प्राण हमारे

किन्तु मात-पिता और भ्राता हैं प्राणों से प्यारे

वो बोली भाई को छोड़ो मैंने उसको छोड़ दिया

प्रिय प्रलाप करो कितना भी मैंने बंधन तोड़ दिया।


मात-पिता एवम् भ्राता से रिश्ता-नाता जोड़ लिया

प्रिय प्रलाप करो कितना भी मैंने बंधन तोड़ दिया।


देह कमल सी कोमलता है अंग-अंग सुंदरता

प्रियतम प्रेम सिद्धता हेतु जो कहती सो करता

नदिया नहीं मिली संगम से प्रवाहन ही मोड़ दिया

प्रिय प्रलाप करो कितना भी मैंने बंधन तोड़ दिया।


मात-पिता एवम् भ्राता से रिश्ता-नाता जोड़ लिया

प्रिय प्रलाप करो कितना भी मैंने बंधन तोड़ दिया।


घृणा की घरवालों से और मुझसे प्रेम रचाया

कितने वर्षों 'अज्ञानी' ने यह सम्बन्ध निभाया

आज तुम्हारी कटु-वाणी ने मुझको तो झकझोड़ दिया

प्रिय प्रलाप करो कितना भी मैंने बंधन तोड़ दिया।


मात-पिता एवम् भ्राता से रिश्ता-नाता जोड़ लिया

प्रिय प्रलाप करो कितना भी मैंने बंधन तोड़ दिया।


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