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Amandeep Singh

Abstract

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Amandeep Singh

Abstract

मैं

मैं

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मैं अपनो के दोष छिपाता हूँ

मैं गैरों पे लांछन लगाता हूँ

जब उँगली मुझ पर उठने लगे

चुपचाप वहाँ से खिसक जाता हूँ


मेरी बुद्धि बहुत ही छोटी है

मैं किसी के भी पीछे लग जाता हूँ

मैं धर्म के नाम पर बँटता हूँ


मैं अक्सर दंगों में कटता हूँ

मुझे आग लगानी आती है

अपनी इज़्ज़त बचानी आती है

मैं ये भी हूँ मैं वो भी हूँ


मैं भीड़ का हर एक चेहरा हूँ

मुझको ही ये मालूम नही

मैं इक प्यादा हूँ इक मोहरा हूँ

मुझे कल वालों ने लूटा था


मैं आज भी लूटा जाता हूँ

ये मेरे बस की बात नहीं

मैं सियासत कहाँ समझ पाता हूँ

जिसने मुझे बनाया है


वो बेबस है लाचार है बहुत

मुझे रक्षा उसकी करनी है

मुझको ही उसे बचाना है


वो नादाँ है वो तो पगला है

बस अमन ही एकलौता सियाना है।


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