मैं प्रकृति हूँ विकृति नहीं
मैं प्रकृति हूँ विकृति नहीं
क्यों निषिद्ध किया है मुझको उजाले में
गाली के अलावा कुछ नहीं समझा
चुपके -चुपके बात करते रहे निरन्तर
मन में दबे किसी पाप की मानिंद
भूल गए तुम कि तुम्हारे शाश्त्रों में / शिल्पों में/ चित्रों में
भरा पड़ा हूँ में यत्र- तत्र -सर्वत्र
तुम्हारी स्मृतियां कहती हैं कि तुम
मैथुनी विकास की ही परिणिति हो
सुना है तुमने देवी - देवता भी गढ़े हैं मेरे नाम पर
तुम्हारे पुरुषार्थ का भी एक तत्व हूँ मैं
तुम फिर भी मुझे निकृष्ट ही मानते आए हो
हज़ारों वर्षों से बचना चाहते हो मुझसे दुनियां के सामने
पर अंतर्मन में मुझे प्राप्त करना चाहते हो हर समय
इसी खींच-तान का फल हुआ कि आज
हर गली कूंचे मुहल्ले में टकरा ही जाते हो मुझसे
मैं सभ्यता के अभिशप्त प्रेत की भांति
पीछा करता रहता हूँ तुम्हारा
और तुम बन जाते हो शुतर्मुर्ग मेरे प्रति
आंखें बंद करने से क्या कोई मुक्त हुआ है कभी
मेरे बलपूर्वक न कि मनपूर्वक दमन ने
कुंठित कर दिया तुम्हारी पूरी सोच को
मैं बिकने लगा जगह जगह
ग़ैरकानूनी पदार्थ के रूप में
या लूटा जाने लगा नृशंश अत्याचार के रूप में
जगह जगह बिखरे पड़े हैं
तुम्हारे इस अत्याचारी वीर्य के सूख चुके चिन्ह
तपोवनी गुफाओं से लेकर
चमचमाती अट्टालिकाओं के कोनों में
मैं उतना ही नैसर्गिक हूँ जितना तुम्हारा होना
उतना ही पवित्र हूँ जितना तुम्हारी आत्मा
उतना ही उजला हुँ जितना तुम्हारा मन
महसूस करो मेरी ऊर्जा को
बात करो मुझसे मेरे बारे में
तुम भी खुल जाओ और में भी
बांध कर मुक्ति सम्भव नहीं
मुझे समझकर ही मेरा अतिक्रमण संभव है
मैं प्रकृति हूँ विकृति नहीं।