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Kamal Purohit

Abstract

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Kamal Purohit

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मैं नीर भरी अबला नारी

मैं नीर भरी अबला नारी

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जब जन्म लिया तो आँख मेरी,

भर भर के नीर बहायी थी।

लेकिन माँ के चेहरे को,

मैं देख देख मुस्काई थी।


जब बड़ी हुई तो दुनिया की,

नजरों ने मुझको घेरा था।

सब अपना मुझे बनाना चाहे,

नहीं कोई पर मेरा था।


आँखों में ख़्वाब सजा कर के,

मैं अपने घर से निकली थी।

माँ बाप के सारे सपनो को

मैं पूरा करने मचली थी।


पर जालिम दुनिया ने मुझको,

बस भोग की वस्तु समझा था।

जिधर गयी बस गिद्ध निगाहें,

मुझको ताड़ा करती थी।


मैं नाजुक, कमजोर मेरा दिल,

मैं किस से लड़ सकती थी।

एक दिवस ऐसा आया,

कुछ लोग मुझे ले भागे।


मैं घबराकर चिल्लाई,

सुनकर भी कोई न जागे।

उन पागल वहशी लोगों ने,

जैसा चाहा मुझे मरोड़ा था।


मैं नीर भरी अबला नारी,

दुनिया ने मुझको तोड़ा था।


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