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Jyotiramai Pant

Abstract

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Jyotiramai Pant

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मैं नदिया

मैं नदिया

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मैंं नदिया बहती रही 

लुकी छिपी पर्वत अन्दर 

बाहर आने को तत्पर 

चंचल बाला सी किलका कर 

हँस निकल पड़ी घर से बाहर 


चट्टानें, जंगल, विषम भूधर 

पथ के कष्ट  बताती रही  

नदिया बहती रही।


अल्हड़ बाला सी भटकन 

शहर ग्राम और  निर्जन 

आती राहों में भी अड़चन 

कहीं किसी को तले डुबाकर 

दूर तीर पर कभी छोड़ कर 

कभी किसी को संग मिलाकर 

हो अबाध्य बढ़ती रही। 


नदिया बहती रही

कहीं लोग करते दर्शन 

अर्चन  भी  निज पाप शमन 

निर्मल बनें यहाँ जन-जन 

मुझमें कर कलुष विसर्जन 

सब के मैंल धोती रही 

मैंं नदिया बहती रही।

 

अनुभूतियाँ हुई गहन 

विस्तृत हो गया विचरण 

अलसाया सा हुआ  भ्रमण 

चाहूँ मेटना अब ये थकन

धीमी गति से चलती  रही

मैंं नदिया बहती रही।


मित्र मिला सागर मुझ  को 

सादर स्वीकृत करे सब को 

बोला मंजिल बन जाऊँ तो 

अस्तित्व अगर तुम भूलो तो 

तुम मधुर सदा मैं खारा 

तुम चलायमान, मैं ठहरा 

निर्वाह कर सको तो आओ।


घर अपना इसे बनाओ 

समर्पण सर्वस्व उसे कर रही 

मैंं नदिया बहती रही।


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