मैं क्यों थकूँ
मैं क्यों थकूँ
मन रात-रात भर रोता है
तन रात-रात भर सोता है
मैं जाग-जाग कर सोता हूं
बार-बार मन ही मन मैं खोता हूं
उठता हूं मैं जगने को
उठता हूं मैं कुछ करने को
क्या है जो मुझे रोक रहा है
क्या है जो मुझे टोक रहा है
कुछ करने को कुछ बनने को ।
पर मैं क्यों रुकूं, मैं क्यों थकूँ
कुछ करने को, कुछ बनने को ।
आंखों में ढेरों सपने हैं
वे सारे के सारे अपने हैं
सपनों से समझौता कर ना सकूं
फिर मैं क्यों रुकूं, मैं क्यों थकूँ।
