मैं कायर नहीं
मैं कायर नहीं
ज़िन्दगी अब फिर से मुझे डराने लगी है
मौत कभी - कभी मेरा द्वार खटखटाने लगी है
मैं दरवाजा खोल जब उसे आवाज़ देती हूँ
वो बाद में आने का कहकर जाने लगी है
मैं जीने की इच्छा अब छोड़ चुकी हूँ
मौत से कुछ - कुछ नाता जोड़ चुकी हूँ
क्या फर्क पड़ता है किसी के जाने से ?
ऐसी सोच को अपने लिए रोक चुकी हूँ
जीना किसके लिए और क्यूँ ?
मौत अपने लिए ज्यों की त्यों
जीना कितना है मुश्किल
मौत है एक सत्य अटल
जीने के लिए भरने पड़ते हैं श्वास
मौत कितनी आसान और खास
हर कोई मातम मनाने आ जाता
पर जीवित मनुष्य कितनों को ना भाता ?
ऐसा आत्महत्या का ख्याल
रोज आता मेरे मन में बार - बार
मैं ज़िन्दगी से अक्सर हूँ हार जाती
और मौत को कहने लगती अपना साथी
मगर फिर अगले ही पल मुझे ये ख्याल आता
कि आत्महत्या का होता कायरों से नाता
मैं कायर नहीं ये सोच के फिर रुक जाती
और ज़िन्दगी से फिर अपना दिल लगाती।