मैं धरा की मिट्टी
मैं धरा की मिट्टी
मैं धरा की ठोस वजूद,
मैं धरा की पावन मिट्टी।
सबकुछ को खुद में ,
समाने की मुझ में शक्तिI
मैं ही देती सभी को पनाह ।
मानव, पशु पक्षी संग ,
सभी पेड़ पौधे के लिए,
हमेशा खुली मेरी बाँह।
मेरा श्रृंगार है इनके संग,
ये सभी मेरे विभिन्न अंग ।
किसी के भी बिछड़ने पर,
होती मुझे पीड़ा ओर गम ।
मेरे ही आँचल में खेले,
मेरे कई अनमोल लाल ।
कई ने मेरी रक्षा हेतु किया निछावर प्राण अपने ।
मेरे लिए ही सजायें सारे सपने अपने,
धन्य हुई मैं धरा की मिट्टी ,
ऐसे अनमोल लाल पाकर ।
पर कुछ मेरे ही लाल,
काट रहे वन, सूना कर रहे मेरा आंगन,
अपने स्वार्थ हेतु छिन रहें मेरी हरियाली ।
वातावरण और नदियों में भी फैला रहें प्रदूषण,
मैं धरा की मिट्टी गर्मी का ताप ,वर्षा की बाढ़
जाड़े के शीत का कहर सब कुछ चुपचाप झेलती ,
क्योंकि मैं ही जननी मिट्टी सबकुछ खुद में समेटती
सबकुछ मुझ से ही बन फिर मुझ में ही होता समर्पित
यही है मेरी प्रकृति, मैं मिट्टी मैं मिट्टी ॥