मैं आम आदमी
मैं आम आदमी
इस भरी भीड़ का हिस्सा हूँ,
एक सुना हुआ सा किस्सा हूँ,
जीवन की इस भाग दौड़ में,
सपने बुनता मैं होड़ में,
और फिर इन सपनों की खातिर,
पल -पल होता मैं शातिर,
पर जीने का है मार्ग यही,
जाने गलत हूँ या सही,
जलते सूरज को ताप रहा,
मैं भी रस्ते नाप रहा,
कभी जीत तो कभी हार,
कभी नफरत तो कभी प्यार,
भावनाओं के इस बंधन में,
मैं भी खुद को बाँध रहा,
तृप्ति और मुक्ति के इस भँवर से,
असमंजस की इस डगर से,
नियति को देकर दगा,
हे ईश्वर ! मुझको पार लगा,
हे ईश्वर ! मुझको पार लगा।।
