माँ तू सारा दिन करती क्या है?
माँ तू सारा दिन करती क्या है?
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माँ तू सारा दिन करती क्या है...?
जो सुबह के पाँच बजे से तेरी चहलकदमी शुरू हो जाती है
मेरी नींद खुलने से पहले कुकर की सीटी बज जाती है...
नहा धो कर तू मंदिर भी हो आती है
गर्मा गरम नाश्ता परोस के खिलाती है
माँ लेकिन तू सारा दिन करती क्या है?
घर बुहार कर सजाती-सँवारती है
कपडे धोती और धूप में सुखाती है
बाबा के टूटे बटन और फटे कुर्ते ही तो सिलती है
पर देख तो ज़रा वो हरा साग बिना चुने ही प़डा है
जाने माँ तू सारा दिन करती क्या है?
साँझ ढलते ही सूखे कपड़े उतार कर तय बनाती है
संध्या दीप जलाते ही तेरी देगची आंच पर चढ़ जाती है
खाना बनाते बनाते ही हमारे बिस्तर तू बिछाती है
चाय बनाती है खुद
के लिए और बर्तन धोने लग जाती है
कभी-कभी तो हम वापस आ जाते है,
पर तेरी चाय तुझसे ना पी जाती है,
कितनी लापरवाह है तू माँ, ज़रा देख तो तेरी ठंडी चाय का प्याला वहाँ पड़ा है
तभी तो पूछती हूँ मैं, कि माँ तू सारा दिन करती क्या है
साँझ ढ़ले जब मैं और बाबा घर वापस आए, मज़ाल है कि जो तुझे घर में ना पायें
पर आज तो इस घर का हर मंज़र, हर नजारा ही अलग है
बिखरा हुआ सा मकान और उजड़ा हुआ सा घर है
आज ना आँच पे देगची है, ना अरगनी से कपड़े ही उतरे है
सिलवटों से भरी चादर पे निढाल सी तू पडी है
आंखों में तेरी बुखार में तपने का अपराधबोध साफ़ नजर आता है
और मुझ बेवकूफ़ को आज तक समझ नहीं आता कि
माँ तू सारा दिन करती क्या है?