क्यों चले आए शहर
क्यों चले आए शहर
क्यों चले आए शहर
बोलो श्रमिक, क्यों गाँव
छोड़ा?
पालने की नेह डोरी
को भुलाकर आ गए।
रेशमी ऋतुओं की लोरी
को रुलाकर आ गए।
छान-छप्पर छोड़ आए
गेह का दिल तोड़ आए
सोच लो क्या-क्या मिला है
और क्या सामान जोड़ा?
छोड़कर पगडंडियाँ
पाषाण पथ अपना लिया।
गंध माटी भूलकर
साँसों भरी दूषित हवा।
प्रीत सपनों से लगाकर
पीठ अपनों को दिखाकर
नूर जिन नयनों के थे
क्यों नीर उनका ही निचोड़ा?
है उधर आँगन अकेला
और तुम तन्हा इधर।
पूछती हर रहगुज़र है
अब तुम्हें जाना किधर।
मिला जिनसे राज चोखा
दिया उनको आज धोखा.
विष पिलाया विरह का
वादों का अमृत घोल थोड़ा?
भूल बैठे बाग, अंबुआ
की झुकी वे डालियाँ।
राह तकते खेत, गेहूँ
की सुनहरी बालियाँ।
त्यागकर हल-बैल-बक्खर
तोड़ते हो आज पत्थर
सब्र करते तो समय का
झेलते क्यों क्रूर कोड़ा?