" क्या यही मेरी परिभाषा है ? "
" क्या यही मेरी परिभाषा है ? "
मानवता की बुनियाद हूँ मै,
फिर इतना कमजोर क्यों कर डाला !
मुझको चुप कराने में,
इतना ज्यादा शोर क्यों कर डाला !!
मै जड़ हूँ इंसानियत के वृक्ष का,
मगर पत्ते जितना भी न सम्मान मिला !
जिसने दुनिया को सुबह दिया,
बदले में उसे बस शाम मिला !!
मुझसे रौशन है ये दुनिया,
पर मै डर-डर के जलती हूँ !
कोई ख्वाब न देख लूँ गलती से,
इसीलिए आँखें मसलती हूँ !!
मेरी वजह से जो दुनिया देख सके,
उन्हें मेरी घूँघट पे पाबन्दी है !
वो मुझे सिखाते हैं पहनावा,
जिनकी अपनों पे ही नियत गन्दी है !!
बेटी हो तो मातम
पर माँ बहन और पत्नी की अभिलाषा है !
क्या यही मेरी परिभाषा है,
क्या यही मेरी परिभाषा है !!
मुझपे तेजाब फेंक दिया,
क्यूंकि मैंने तुम्हारा प्यार कबूल नहीं किया !
तो अब कर लो प्यार इस जले चेहरे से,
अगर तुमने कोई भूल नहीं किया !!
कब तक दिखाते रहोगे पौरुष अपना,
इन अनगिनत बलात्कारों से !
तुम्हारी नामर्दगी की बदबू आती है,
कुछ चीखती दीवारों से !!
तुम्हें ख्वाब देखने का हक है,
और मेरी नींद पे भी पहरेदारी है !
मुझे छोड़कर ऐ दुनिया वालों,
ये किस नए युग की तैयारी है !!
तुम्हें आसमान की छूट मिली है,
मुझे जमीन पे भी नहीं आज़ादी है !
तुम्हे भीड़ मिली है मस्ती को,
और मेरे एकांत में भी बर्बादी है !!
जब-जब मैंने लब खोले हैं,
मुझे मिला बस अपूर्ण दिलासा है !
क्या यही मेरी परिभाषा है,
क्या यही मेरी परिभाषा है !!
जो सुधर न पाई सदियों से,
कोई ऐसी भूल बनाकर छोड़ दिया !
न जमीं पे गिरी न आसमां से जुडी
वो धूल बनाके छोड़ दिया !!
मेरे बिना जरा सोच के देखो,
सृष्टि का भी कोई अर्थ दिखाई देता है !
मै न रहूँ तो एक कदम मानव-सभ्यता का चलना भी,
असमर्थ दिखाई देता है !!
कब तक लड़ती रहूंगी मै,
अपने वजूद की इस लड़ाई को !
अब समझना ही होगा तुम्हें,
वक़्त की इस अंगड़ाई को !!
ये मत भूलो कि पतंग उतनी ही उड़ सकती है,
जितनी लम्बी डोर हो !
होगी सुबह एक दिन जरूर,
चाहे रात कितनी भी घनघोर हो !!
डाली को तोड़ना जारी है,
और फल की होती रहती आशा है !
क्या यही मेरी परिभाषा है,
क्या यही मेरी परिभाषा है !!
