क्या क्या देखा है
क्या क्या देखा है
कभी जज़्बातों को उभरते देखा है
कभी एहसासों को बिखरते देखा है
हम तो आशिक ठहरे साहब
ये मत पूछ हमने क्या क्या देखा है
मुद्दतों बाद भी कुछ हासिल
नहीं वो मंज़र भी देखा है
तूफ़ानों से निकल कर
साहिल को बिछड़ते देखा है
आजकल की बात नहीं
ज़माने से यू ही तड़पते देखा है
हम तो आशिक ठहरे साहब
ये मत पूछ हमने क्या क्या देखा है
हालात बिगड़ते ही अपनों को
संभलते देखा है
मुख़्तसर मंज़िल हो फिर भी
राहें बदलते देखा है
क्या सही क्या ग़लत इसी
कशमकश में उलझते देखा है
हम तो आशिक ठहरे साहब
ये मत पूछ हमने क्या क्या देखा है...

