क्या खोया,क्या पाया?
क्या खोया,क्या पाया?
वक्त के अनन्त बहाव में,
जीवन के अविरल प्रवाह में,
कभी डग भरके पगडंडियों पर
पहुंचता मानव कभी बुलंदियों पर,
कभी नियति के तुला पर बैठकर
गंभीर होता गहराइयों में पैठकर।
सोचता क्या खोया क्या पाया? इस द्वंद्व में,
ठिठकाया, अपने को अंदर मचे अंतर्द्वंद्व में,
भावुक होता,अतीत के उस कल को याद कर,
कैसे मनहर थे वे पल,हम जी लिए बुनियाद पर,
वर्जनाओं,मर्यादाओं में भी सजीव रहते थे संवेदन,
आनन्द की अनुभूति औ अनुभव करते अपनापन।
यादों की पुरवाई जब दस्तक देती,
मैं मन के पट आहिस्ता खोल देता,
पलकों में बंद रखता,जब वे हिलोरें लेती
अतीत की सुनहरी पगडंडियों पर चलता,
बीत गई,बात गई फिर क्यूं करना उस पर नर्तन,
वक्त पर छोड़ देना है यदि बस में न हो परिवर्तन।
सच में कल के अनुभव तेलों से यह चिंतन दीप जला है,
नये क्षितिज को रचने रौशन पथ पे, हमारा शौर्य चला है,
मैं कहता हूं, पुरातन रीति वही भली थी,
जहां इंसान में इंसानियत, बढ़ी पली थी,
मेरा विश्वास है दिखायेंगी अतीत की पगडंडियां,
राह उस गांव की, जहां जन्म लेती थी शोखियां।
और जीना सीखा था संतोष और सुकून का जीवन,
अतीत के अनुभव से,सुधारना है, आज का जीवन,
हमने खोया बदनसीबी का दर्द और उदासियों के आंसू,
सम्मान में आती घर की बनी मठरियां,शर्बत और सत्तू,
घेर लेता था गांव, जब किसी के घर पहुंचे बन मेहमान
सच में खोया बहुत पाया कम,सीख से सुधारें वर्तमान।