कविता: दोस्ती
कविता: दोस्ती
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दोस्ती दो अंत: कर्णों का भाव है।
मेरे तुम्हारे का दुर्भाव नहीं।
दोस्ती देखी कृष्ण- सुदामा की,
देखी दोस्ती राम-सुग्रीव की,
पर क्या कभी देखी है दोस्ती?
खिचड़ी में पड़े दाल और चावल की,
शरबत में मिले पानी और चीनी की!
चिमटों के दोनों टांगों की!
दोस्ती दो अपरिचितों का परस्पर प्रभाव है,
कृतज्ञता और कृतघ्नता का कोई प्रादुर्भाव नहीं।
दोस्ती है मानव शरीर के दोनों पांवों की,
दोस्ती है नदी के दोनों किनारों की।
दोस्ती में हाजिर एक-दूसरे की जान है।
दोस्ती मेरी तुम्हारी शान है।
दोस्ती मेरी तुम्हारी शान है।