क़ुदरत
क़ुदरत
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स्वर्ग समान है यह क़ुदरत,
परंतु हो रही है यह हम सभी से नदारद,
मार डाला ज़ालिम दुनिया ने इसे,
अब पता नहीं कब ये दोबारा हँसे।
कारण है मनुष्य का स्वार्थ,
न जाने कब बनेगा वह निस्वार्थ,
इस जड़ को मिटाना मुमकिन है,
पर स्वार्थ के कारण नामुमकिन है।
न कोई सोचता कभी,
न कोई समझता कभी,
बस करते जाते यह भूल सभी,
हे ईश्वर, हे परमात्मा।
शक्ति दे इसे बचाने की,
यह कोशिश है आने वाली
पीढ़ी को हँसाने की,
बर्बाद कर दी मनुष्य ने
क़ुदरत की ज़िंदगी।
न जाने कब इसे
होगी दोबारा बंदगी।