कठपुतलियाँ
कठपुतलियाँ
जैसा चाहो वैसा नचाओ,
भांति भांति के नाटक रचाओ।
हम कठपुतली जन हाथों की,
मनभावै वह खेल दिखाओ।
बोल नहीं सकती हम कुछ भी,
और नहीं सुन सकती कुछ भी।
अगर चलेंगी तो नहीं खुद से,
देख नहीं सकती हम कुछ भी।
खाने की तो बात न करना,
आजीवन निर्जल व्रत रहना।
हाँ, पोशाक ज़रूर बदलतीं,
और मटकती पहन के गहना।
तुम क्या जानो पीर हमारी,
हम अधीन रहतीं जग सारी।
नहीं कभी मन की कर सकतीं,
हमें देख हंसतीं नर-नारी।
पर देखा है नर समाज में,
फँसे लोग रस्मों-रिवाज में।
कठपुतली बन करके नाचते,
सुर, लय, ताल और साज में।
नेताओं के लोभ में फंसकर,
जनता सदा काटती चक्कर।
सारा देश बना कठपुतली,
नेता नचा रहे जी भरकर।
जब विकास की आती बारी,
नेता ठगते हैं बारी-बारी।
जनता नाचे बन कठपुतली,
सब कहते जनता बेचारी।
हम कठपुतली नहीं बनेंगे,
अत्याचार हम नहीं सहेंगे।
सबक सिखा देंगे हम मिलकर,
नेक बनेंगे, एक बनेंगे।
