--" कसक "-- कविता
--" कसक "-- कविता
हम अकेले चले तुम अकेले चले
एक जीवन में कितने झमेले चले
ईंट रेती मिला कर मकां बन गया
हम मकां तो हुए लेकिन घर ना हुए।
कहने को तो हम भी सफर में रहे
साथ देने को तुम भी नजर में रहे
नदी तीरों के माफिक हम चलते रहे
दोनों सफर में रहे हमसफर ना हुए।
शहर आए तो पक्की सड़क हो गये
बोल मीठे भी सारे कड़क हो गये
जागी राहों में दिन रात उलझे रहे
सुकूं देनेवाली वो कच्ची डगर ना हुए।
जिंदगी भर की देखो कसक रह गयी
घुट घुट के सिसकती सिसक रह गयी
मैं और तुम हम हो ही जाते मगर
हम इधर ना हुए तुम उधर ना हुए।