कर्म ही सर्वोपरी
कर्म ही सर्वोपरी


ना आने का गम, ना जाने का,
गम है तो, ना कुछ कर दिखाने का,
मैं उम्र भर भटकती रही
कि मिलेगी मंजिल मुझे भी कभी।
मैंने सपनों को था संजोया बहुत,
छूना चाहती थी मैं भी गगन,
मगर उम्र कट गई यूँ ही,
ना कर सकी पूरे अपने स्वपन।
मैने हार तब भी नहीं मानी,
बस ढूंढती रही नई राह अंजानी,
जो सुरक्षित और सुनसान हो,
जहाँ जाने से ज़िन्दगी गुलिस्तान हो।
फिर एक दिन वो राह मिली,
थी कठिन पर थी नई,
मैंने हाथ बढ़ा उसे चुना,
अपने हौसलों को फिर बुना।
मैंने कर दिखाया जो नामुमकिन था,
कुछ देर सही,पर मेरी पहचान बनी,
मैं चलती रही उस पथ पर भी,
जहाँ काँटे थे पर फूल नहीं।
मेरा रोम - रोम तब हार्षित हुआ,
कुछ कर दिखाने की चाह से पुलकित हुआ,
मैं समझ गई तब इस जीवन संग्राम को,
जहाँ कर्म ही सदा सर्वोपरी हुआ।।