करघा की धुन
करघा की धुन
ये कैसी टक टक की शोर आती है रे सुन
ये तो एक बुनकर की रोज़मर्रा की है धुन।
उलझी है रंगीन धागों में बूढ़ी अंगुलियाँ
तराश रहीं हैं लिबाज़
जिनमे लिपटी है एक आधुनिक दुनिया।
स्थित करघा में जैसे जपते लगते हैं अटेरन
वृद्ध नीरव देह में फड़फड़ाता है वैसे चंचल मन।
तो क्यों न आज हम भी खरीदें
उनके बुने कुछ अमूल्य कोष
हो हम भी शुक्रगुज़ार ताकि
पूरे हो उनके हिस्से के ख्वाब इस बार।